छोटे छोटे सवाल –२९
उसके चेहरे से लगता था कि वह उत्तेजित हो गया है और अगर बोल पाता तो गालियां दे रहा होता। दुकान पर उपस्थित लोग इस तमाशे में रस लेने लगे थे और सत्यव्रत इस अप्रत्याशित घटना से भौंचक्का-सा होकर सहायता के लिए इधर-उधर देखने लगा था। तभी पास के मूढ़े पर बैठा बीड़ी पीता हुआ एक दुबला-सा नवयुवक उठा और गूँगे के सामने खड़े होकर उसने गर्दन हिलाकर कुछ मना किया। फिर विस्तार से दोनों आँखें फैलाकर दाहिने हाथ की तर्जनी से उसी गिलास के अन्दर इशारा किया और तत्पश्चात् प्रशंसा सूचक मुस्कराहट अधरों पर लाकर स्वीकृति की मुद्रा में अपनी गर्दन ऊपर-नीचे हिलाने लगा। तत्काल गूँगा शान्त हो गया और उसने हँसते हुए हाथ बढ़ाकर सत्यव्रत से पैसे ले लिए।
सत्यव्रत ने मुक्ति की सांस ली। आभार और आश्चर्य-सहित वह उस नवयुवक की ओर देखने लगा, जिसने स्थिति संभालने के लिए अनायास ही एक छोटा-मोटा नाटक कर दिया था। सत्ताइस-अट्ठाइस साल की उम्र। देखने में सुशिक्षित और बुद्धिमान और पतले-दुबले कमजोर शरीर पर खादी के साफ़ कपड़े, बीड़ी पीने को छोड़कर सत्यव्रत को उसका पूरा व्यक्तित्व पसन्द आया। धन्यवाद देने के लिए वह कुछ शब्द खोज ही रहा था कि वह नवयुवक गूँगे की ओर संकेत करके बोल उठा, "इसकी आदत बड़ी खराब है। अपनी चीज की जरा-सी बुराई बरदाश्त नहीं कर सकता। वैसे आप भी स्वीकार करेंगे कि ईमानदार आदमी को अपनी मिथ्या आलोचना पर क्षोभ होता ही है।"
सत्यव्रत उस बीड़ी पीनेवाले नवयुवक की शिष्ट और संयत वाणी पर मुग्ध होते हुए बोला, "लेकिन मैंने इसकी आलोचना कहाँ की?"
"वही तो मैने समझाया कि ये तुम्हारी तारीफ़ कर रहे हैं। वरना वह आपको चैलेंज दे रहा था कि बिजनौर तक ऐसा दूध नहीं मिल सकता।" उस नवयुवक ने मुस्कराकर कहा और फिर पूछा, "आप बिजनौर के रहनेवाले तो नहीं हैं न?" "जी नहीं," सत्यव्रत ने कहा, "मैं तो मोजमपुर के पास एक गाँव है, तीरथनगर, वहाँ का रहनेवाला हूँ।"